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राबता

देखा जाय तो कुछ भी नहीं है
मुझमें- तुममें जो एक सा है।

न जिस्म , न सोच,
न पसंद, न नापसंद,

फिर भी है कुछ तो दरम्यान हमारे
जो जेहन से हटते ही नहीं तुम हमारे।

शायद रुहें ही बस एक जैसी
पर उनमें भी तो ये भेद कैसी?

शायद तू अपना चुका है इन अन्धेरों को
जिनसे लडने मे अब तक उम्र गुजरी है मेरी।

कैसे मान लूं शिकसत इनसे,
जब दांव पर हस्ती हो तेरी।

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