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1. औरत

'कौन हूँ मैं?'
हुआ था मुझसे यह प्रश्न एक बार।
सोचने पर विवश कुछ यूँ हुई मैं,
चल रहा था अंतर्मन में एक संघर्ष लगातार।

चुपचाप ही तो रहती आई हूँ,
अंधकार का हर दर्द, बस मूक ही तो सहती आई हूँ।
समाज ने मारी हैं ठोकरें हजा़र,
अनगिनत नज़रों से, अस्मत हुई है मेरी तार-तार।
रोना चाहूँ तो भी रो ना सकूँ,
सूखे अश्रुओं के संग अब थक सी गयी हूँ।

हाँ, औरत हूँ मैं।

बचपन में कहते थे किलकारी जिसे,
अब वह करुण रुदन हो चुका है।
क्या इतना पराया कर दिया मुझे,
मैं कराह रही हूँ, हर कोई सो चुका है?

बंद आँखों से देखे हैं मैंने ख्वाब कई,
एक हृदयभेदी क्रंदन के साथ टूटा मेरा स्वप्न तभी।
आभास हुआ था जब, है यह शुरुआत नई,
हुआ था प्रयास तब, कुतरने का मेरे पंख सभी।

हाँ, औरत हूँ मैं।

गिरी हूँ, गिर कर उठी हूँ बार-बार,
जीने की कला सीखी है मैंने, ठोकरें खा कर लगातार।
आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच पलती रही हूँ,
अब तक तन्हा ही तो चलती रही हूँ।

मैं ही चण्डी, मैं ही काली,
मैं ही तो दुर्गा का स्वरूप हूँ।
मैं ही शीतल, मैं ही सौम्य,
मैं ही तो संसार का रौद्र रूप हूँ।

हाँ, औरत ही तो हूँ मैं।

© गरुणा सिंह (Stella)

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Original pic credit: Pinterest

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